सतगुरु रविदास महाराज जी की परीक्षा

🌼सतगुरु रविदास महाराज जी की परीक्षा🌼


सद्गुरु रविदास जी महाराज

1. परीक्षा का अर्थ और महत्व

साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी। तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी।।

“परीक्षा जीवन का अभिन्न अंग है, क्योंकि बिना परीक्षा के व्यक्ति के धैर्य, सत्य और विश्वास की पहचान नहीं हो सकती।”

“परीक्षा” शब्द का स्वरूप भले ही सीमित दिखाई दे, लेकिन इसका अर्थ अत्यंत गहरा है। जीवन का हर क्षण एक परीक्षा है, और यही अनुभव हमें आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।

“परीक्षा” शब्द दो पदों के योग से बना है — ‘पर’ + ‘ईक्षा’

“पर” का अर्थ है ‘दूसरा’ और “ईक्षा” का अर्थ है ‘इच्छा’।

अर्थात् दूसरों की इच्छा के अनुसार कार्य करना।

यदि मानव को जीवन में कभी किसी परीक्षा से नहीं गुजरना पड़े, तो वह अपनी सीमाओं को भूलकर दानव स्वरूप धारण कर लेगा।सतगुरु रविदास महाराज जी जो स्वयं भगवान का रूप थे । मानव जीवन में आकर प्रभु भक्ति और गुरु-सेवा करने की परीक्षा भी दी ।

2. मानव जीवन की परीक्षा

यह परीक्षा हमारे आध्यात्मिक गुणों की होती है।

जीव को परमात्मा ने इस संसार में इसलिए भेजा है कि वह परमार्थ और प्रभु-भक्ति में लीन होकर तन, मन और धन का सदुपयोग करे तथा समाज कल्याण में अपना योगदान दे। परंतु जब मानव अपने सच्चे उद्देश्य को भूलकर संसार की चमक-दमक में उलझ जाता है, तब वह जीवन की इस महान परीक्षा में असफल हो जाता है। ऐसा व्यक्ति फिर से चौरासी लाख जोनियों के कष्टों में पड़ता है।

जो व्यक्ति इन आध्यात्मिक परीक्षाओं में खरा उतरता है, वही मोक्ष रूपी डिग्री प्राप्त करता है। अन्य सभी सामाजिक परीक्षाएं उसी प्राकृतिक परीक्षा का एक छोटा भाग हैं।

“मानव जीवन की सर्वोच्च परीक्षा — प्रभु भक्ति और गुरु सेवा की परीक्षा है।”

3. सद्गुरु रविदास जी का अवतरण

जब समाज में अन्याय और ऊँच-नीच की भावना चरम पर थी, तब प्रभु ने सद्गुरु रविदास जी को इस पृथ्वी पर भेजा। आप ने बनारस की पावन भूमि पर जन्म लेकर सत्य, प्रेम और समानता का संदेश फैलाया।

जैसे-जैसे आप बड़े होते गए, परीक्षाओं का सिलसिला आरंभ हो गया।

भगवान ने सोचा — जिन कर्मकांडों और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए उन्हें पृथ्वी पर भेजा गया था, क्या वे अपने उद्देश्य में सफल हो रहे हैं? क्या वे मोह-माया में फँसे बिना धर्म और प्रेम का प्रचार कर रहे हैं?

इसी परीक्षा हेतु भगवान एक दिन साधु-संन्यासी का वेश धारण कर रविदास जी की झोंपड़ी में पहुँचे — जहाँ आप अपने सांसारिक कर्म और भक्ति में लीन थे।

4. साधु रूप में प्रभु की परीक्षा

एक दिन प्रभु ने साधु-संन्यासी का वेश धारण कर सद्गुरु जी की झोंपड़ी में प्रवेश किया। उस समय सद्गुरु जी अपने पैतृक व्यवसाय सांसारिक कर्म में लगे हुए थे।

सद्गुरु जी ने साधु का स्वागत किया और पूछा —

“महात्मन्! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?”

साधु बोले —

“रविदास जी! इतनी कम मज़दूरी लेकर आप कितनी कमाई कर लेते हैं? इतनी कम आमदनी के कारण ही तो आप निर्धन हैं। न आपके पास अच्छा घर है, न धन-दौलत। परिवार का गुज़ारा कैसे करते हैं?”
“मेरा यह जोड़ा टूट गया है, इसे गाँठने की मज़दूरी क्या लोगे?”

सद्गुरु जी ने उत्तर दिया —

“मैं सभी से एक कसीरा ही लेता हूँ, चाहे बड़ा हो या छोटा।”

साधु ने कहा —

“इतनी कम मज़दूरी से तुम गरीब हो जाओगे!”

सद्गुरु जी मुस्कुराए और बोले —

“संतोष और सब्र की कमाई मुझे आनंद देती है। मुझे इससे अधिक की आवश्यकता नहीं।”

साधु पुनः कहा —

“रविदास जी! इतनी कम मज़दूरी लेकर आप कितनी कमाई कर लेते हैं? इतनी कम आमदनी के कारण ही तो आप निर्धन हैं। न आपके पास अच्छा घर है, न धन-दौलत। परिवार का गुज़ारा कैसे करते हैं?”

सद्गुरु जी मुस्कुराए और बोले —

“महात्मन्! इससे मेरा घर-परिवार अच्छी तरह चलता है। संतोष और सब्र ही मेरी सबसे बड़ी कमाई है। मुझे इससे जो आनन्द मिलता है, वही मेरा धन है। मुझे इससे अधिक की आवश्यकता नहीं।”

5. पारस पत्थर की परीक्षा

साधु बोले—

“रविदास जी, मुझे आपकी गरीबी देखकर दया आ रही है। मैं आपको एक ‘कसीरा’ नहीं, बल्कि ‘पारस’ देता हूँ। यह बहुत कीमती है। जब आवश्यकता हो, इसे किसी धातु को छूना — वह सोना बन जाएगी। इस सोने को बेचकर आप अपनी सभी ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं, एक अच्छा घर बना सकते हैं और आराम से जीवन व्यतीत कर सकते हैं।”

साधु ने फिर कहा—

“यह पारस मेरे पास सुरक्षित नहीं रहेगा, कहीं खो न जाए या कोई चुरा न ले। अतः इसे आप अपने पास रख लीजिए।”

सद्गुरु जी विनम्रता से बोले —

“महात्मन्! यदि यह आपके पास रखना ही कठिन है, तो मुझे क्यों चिंता में डाल रहे हैं? आप चाहें तो इसे यहीं झोंपड़ी में किसी स्थान पर स्वयं रख दीजिए और जब लौटें तो ले जाइए। दूसरों की अमानत संभालना बड़ा कठिन कार्य है। कृपा कर शीघ्र इसे वापस ले जाइए।”

साधु ने पारस वहीं रख दिया और कहा —

“रविदास जी, जीवन में ऐसे समय भी आते हैं जब व्यक्ति विवश होकर धन की आवश्यकता महसूस करता है। यदि कभी ऐसा समय आए, तो इसका उपयोग कर लेना।”

बहुत समय बाद वही साधु फिर रविदास जी की झोंपड़ी में लौटे। देखा — वही सरलता, वही संतोष, वही पुराना रहन-सहन, वही प्रभु-भक्ति की चमक । चेहरे पर चिंता का नामोनिशान नहीं था। सद्गुरु जी ने पारस को देखा तक नहीं था

साधु भाव-विभोर हो बोले —

“रविदास! तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए। तुम्हारा संतोष और वैराग्य अमूल्य है।”

साधु ने कहा —

“जिसके पास प्रभु का नाम धन है, उसे संसार की किसी पारस की आवश्यकता नहीं।”

6. प्रभु के प्रति अटूट प्रेम

जब सद्गुरु जी को ज्ञात हुआ कि वह साधु स्वयं भगवान थे, तो उन्होंने प्रभु को आलिंगन में भर लिया। प्रभु छूटना चाहते थे, पर प्रेम के बंधन में बंध गए।

सद्गुरु जी बोले —

“प्रभु! आप मेरी बाहों से भले छूट गए हों, पर मेरे हृदय से कभी नहीं जा सकते। मेरा रोम-रोम आपका है।”

भगवान बोले —

“रविदास! तेरी मेरे साथ कैसी प्रीति है!”

सद्गुरु जी बोले —

“हे प्रभु! मेरी आपके साथ अटूट प्रीत है। मैं संसार के सभी बंधनों से मुक्त हूँ।”

और फिर सद्गुरु जी ने शब्द उच्चारण किया, जो की उनकी पावन वाणी को एकत्रित कर "अमृतवाणी ग्रंथ" सतगुरु रविदास महाराज जी में भी संकलन है। —

“जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥
अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥ 1 ॥” (मूल ग्रंथ "अमृतवाणी" पन्ना 14)

🔹 स्रोत: गुरु रविदास जी की पावन वाणी एवं परंपरागत ग्रंथ

✍️ Written by: श्री शेर सिंह
(राष्ट्रीय अध्यक्ष, ग्लोबल रविदासिया वेलफेयर ऑर्गनाइज़ेशन)


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