गुरु गोरखनाथ और सद्गुरु रविदास महाराज जी की अद्भुत भेंट

गुरु गोरखनाथ और सद्गुरु रविदास महाराज जी की अद्भुत भेंट

(चित्र: गुरु रविदास जी और गुरु गोरखनाथ की भेंट)

(चित्र: गुरु रविदास जी और गुरु गोरखनाथ की भेंट)


भारतीय संत परंपरा में सद्गुरु रविदास महाराज जी का नाम सर्वोच्च स्थान रखता है। पन्द्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी में जब समाज कर्मकांडों, धार्मिक कट्टरता और सामाजिक कुरीतियों से जकड़ा हुआ था, उस समय आपने अपनी भक्ति, प्रेम और सादगी से भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी। इसी कालखंड में उनकी मुलाकात महान योगी गुरु गोरखनाथ से हुई, जो भारतीय इतिहास का एक अद्वितीय प्रसंग है।

भक्ति काल की पृष्ठभूमि

उस समय हिंदू समाज में जटिल कर्मकांड और जातिगत भेदभाव चरम पर था। तत्कालीन राजाओं के भोग-विलास ने गरीब, दलित और नारी वर्ग का शोषण बढ़ा दिया था। सामान्य जन निराश और हताश होकर धर्म बदलने तक को तैयार हो गया था। ऐसे वातावरण में संत कवियों और महापुरुषों ने सहज भक्ति मार्ग दिखाकर लोगों को आशा और आत्मविश्वास दिया। इस धारा में कबीर, नामदेव और रविदास जैसे संतों का योगदान अविस्मरणीय है।

सद्गुरु रविदास महाराज जी की महिमा

रविदास जी ने अपनी साधना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सादगीपूर्ण जीवन से न केवल सामान्य जनता बल्कि राजाओं और रानियों को भी अपना शिष्य बनाया। काशी में रहते हुए आपने अद्भुत चमत्कार दिखाए—जैसे उलटी गंगा बहाना, पत्थरों को तैराना, और चार युगों के जनेऊ प्रस्तुत करना। परिणामस्वरूप रानी झालांबाई, राजा हरदेव सिंह और राजा सांगा जैसे शाही व्यक्तित्व उनके शिष्य बन गए। धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गई।

गुरु गोरखनाथ की शंका

सद्गुरु जी की ख्याति सुनकर योगी गुरु गोरखनाथ चिंतित हो गए। वे सोचने लगे कि मैंने तो राजा-रजवाड़ों को शिष्य बनाया है, पर यह गुदड़ी का लाल इतना प्रसिद्ध कैसे हो गया? अहं और ईर्ष्या वश वे काशी में रविदास जी से मिलने पहुंचे, ताकि उन्हें अपनी सिद्धियों के प्रभाव से शिष्य बना सकें।

सोने और रत्नों का लालच

गोरखनाथ ने सोचा कि यह गरीब साधु केवल धन-दौलत और वस्त्रों से प्रभावित हो जाएगा। उन्होंने रविदास जी को पारस पत्थर दिया और कहा कि इससे सोना बनाकर शाही जीवन जी सकते हो। परंतु रविदास जी ने विनम्रता से कहा—

“मुझे सोने की आवश्यकता नहीं, मेरा धन प्रभु का नाम है। जो प्रभु पर भरोसा करता है, उसे किसी पारस की जरूरत नहीं।”

कठौती का चमत्कार

गोरखनाथ ने फिर उन्हें हीरे-जवाहरात का लालच दिया। इस पर रविदास जी ने अपनी कठौती (जिसमें वे चमड़ा धोते थे) दिखाई। गोरखनाथ ने जब उसमें झांका तो उन्होंने देखा कि उसमें पूरा ब्रह्माण्ड, देवी-देवता और पवित्र गंगा का प्रवाह विद्यमान है। यह देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए और उनकी आंखें खुल गईं।

सद्गुरु रविदास जी का उपदेश

दारिदु देखि सभ को हसै ऐसी दसा हमारी।
असटदसा सिधि कर तलै सभ क्रिपा तुमारी ॥१॥
तू जानत मै किछु नहीं भवखंडन राम।
सगल जीअ सरनागती प्रभ पूरन काम ॥ रहाउ ॥

उन्होंने समझाया कि भक्ति और विनम्रता ही सच्ची शक्ति है। जहां अहंकार होता है वहां भगवान नहीं होते। पर जहां भगवान होते हैं, वहां ‘मैं’ नहीं रहती। यही संत मार्ग का सार है।

गोरखनाथ की विनम्रता

सद्गुरु जी का उपदेश सुनकर गोरखनाथ का अहं टूट गया। उन्होंने सिर झुकाकर स्वीकार किया कि रविदास जी की महिमा अकथनीय है। वे सुमेर पर्वत लौट गए, पर उनके हृदय में रविदास जी के प्रति आदर और भक्ति भर गई।

निष्कर्ष

गुरु गोरखनाथ और सद्गुरु रविदास जी की यह भेंट हमें यह सिखाती है कि भौतिक संपत्ति और रिद्धि-सिद्धियाँ क्षणिक हैं, पर प्रभु का नाम और सच्ची भक्ति शाश्वत है। संतोष और विनम्रता ही मानव जीवन की वास्तविक धरोहर हैं।

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