बहिष्कृत भारत" और बाबासाहेब अंबेडकर:
बहिष्कृत भारत" और बाबासाहेब अंबेडकर: एक सामाजिक क्रांति का मुखपत्र
📜 विषय सूची (Table of Contents)
1. "बहिष्कृत भारत" का ऐतिहासिक प्रारंभ
3 अप्रैल 1927 को मुंबई से शुरू हुई "बहिष्कृत भारत" पत्रिका न केवल एक मीडिया माध्यम थी, बल्कि दलितों के अधिकारों के लिए एक सशक्त आंदोलन का प्रतीक बनी। डॉ. अंबेडकर स्वयं इसके संपादक थे और उन्होंने इसे सामाजिक न्याय की लड़ाई का हथियार बनाया।
इस पत्रिका ने छुआछूत, जातिगत भेदभाव, और धार्मिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। उदाहरण के लिए, अंबेडकर ने लिखा:
"सभी तालाब और मंदिर अछूतों के लिए खुले होने चाहिए क्योंकि वे भी हिंदू हैं।"
यह मांग महाड़ सत्याग्रह (1927) जैसे आंदोलनों को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण रही, जहाँ दलितों ने सार्वजनिक जल स्रोतों का उपयोग करने का अधिकार हासिल किया।
2. "मूकनायक" से "बहिष्कृत भारत": विचारधारा का विस्तार
"मूकनायक" (1920) के माध्यम से अंबेडकर ने दलित चेतना को जगाने का प्रयास शुरू किया था। इसके एक अंक में उन्होंने लिखा:
"भारत को स्वतंत्रता के साथ-साथ एक ऐसा राज्य चाहिए जहाँ धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक समानता हो।"
यह विचार "बहिष्कृत भारत" में और परिपक्व हुआ। उन्होंने स्पष्ट किया कि स्वराज का अर्थ केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक गुलामी से मुक्ति है।
3. सरकारी प्रस्तावों पर दबाव और विरोध
अंबेडकर ने मुंबई सरकार के विधि मंडल द्वारा पारित उन प्रस्तावों को लागू करने की मांग की, जिनमें सार्वजनिक संसाधनों को दलितों के लिए खोलने का प्रावधान था।
"कानून का उल्लंघन करने वालों को सजा मिलनी चाहिए।"
यह निर्भीक भाषा हिंदू रूढ़िवादी ताकतों को चुनौती देती थी, जिसके कारण हिंदू पत्रिकाओं ने उनकी कटु आलोचना शुरू कर दी।
4. तिलक के नारे पर प्रहार और दलित चेतना
अंबेडकर ने लोकमान्य तिलक के प्रसिद्ध नारे "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" को चुनौती देते हुए कहा:
"यदि तिलक अछूत परिवार में जन्मे होते, तो वे 'छुआछूत का उन्मूलन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' कहते।"
यह टिप्पणी दलितों में जागृति लाने और हिंदू समाज को उसकी विसंगतियाँ दिखाने का साहसिक कदम थी।
5. संघर्ष की सैनिकवादी नीति और सामाजिक परिवर्तन
अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों के लिए "सैनिकवादी नीति" अपनाई, जिसमें विरोध, सत्याग्रह, और कानूनी लड़ाई शामिल थी।
"निरंतर संघर्ष ही सामाजिक जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।"
इसी दृष्टिकोण ने 1930 के कालाराम मंदिर आंदोलन को प्रेरित किया, जहाँ दलितों ने मंदिर प्रवेश का अधिकार माँगा।
6. "बहिष्कृत भारत" का सांस्कृतिक अवदान
अंबेडकर की पत्रकारिता ने केवल राजनीतिक मुद्दों को ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण को भी बढ़ावा दिया। उन्होंने संत तुकाराम की ओवी (मराठी छंद) को "मूकनायक" में शामिल कर समावेशीता का संदेश दिया:
"काय करूं आतां धरूनियां भीड। निःशंक हे तोंड वाजविलें॥" (अर्थ: मैं क्यों चुप रहूँ? अब मैं निर्भय होकर बोलूँगा।)
7. विरासत और आधुनिक प्रासंगिकता
"बहिष्कृत भारत" और "मूकनायक" की विरासत आज भी प्रासंगिक है। अंबेडकर का यह संदेश कि "शिक्षा, संगठन, और संघर्ष" समाज परिवर्तन के मूलमंत्र हैं, नई पीढ़ी को प्रेरित करता है।
2025 में यूरोप में प्रस्तावित "अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन" जैसे आयोजन इसी विचारधारा का विस्तार हैं।
निष्कर्ष
"बहिष्कृत भारत" के माध्यम से अंबेडकर ने सिद्ध किया कि पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का सबसे प्रभावी हथियार हो सकती है। उनकी लेखनी ने न केवल दलित चेतना को जगाया, बल्कि भारतीय संविधान के मूल्यों — समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व — की नींव भी रखी।
आज जब देश उनकी जयंती मनाता है, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उनके विचारों को आगे बढ़ाने का संकल्प है।
निष्कर्ष
गुरु रविदास जी महाराज का जीवन और उपदेश आज भी हमें सिखाते हैं कि सच्चाई, समानता और मानवता के सिद्धांतों पर चलकर हम एक आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं। उनकी पवित्र शिक्षाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक रहेंगी।
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