सतगुरु रविदास महाराज जी और मीरा बाई

मीरा बाई को दीक्षा — सद्गुरु रविदास महाराज से मिलन

मीरा बाई को दीक्षा

लेखक: शेर सिंह रविदासिया, अम्बाला | स्रोत: ऐतिहासिक संदर्भों एवं लोक परंपराओं पर आधारित

 सतगुरु रविदास महाराज जी और मीरा बाई
गुरु मिलिया रैदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी ।
चोट लगी निज नाम, हरि की मद्वारे हियड़े खटकी ।।

मीरा बाई का जीवन, भक्ति और गुरु की खोज

यद्यपि मीराबाई के जीवन काल के संबंध में एक मत नहीं है, फिर भी सामान्यतः संवत् 1555 से 1603 विक्रमी का समय स्वीकार किया गया है। इस दृष्टि से मीरा सद्गुरु रविदास, सद्गुरु कबीर और सद्गुरु नामदेव जी की परवर्ती तथा सूरदास और तुलसीदास की पूर्ववर्ती सिद्ध होती हैं।

उस समय सद्गुरु रविदास महाराज जी द्वारा प्रवर्तित भक्ति-मार्ग अपने उत्कर्ष पर था। भक्ति-काल के सन्त-महापुरुषों ने अपनी वाणी के माध्यम से उस युग के सांप्रदायिक भेदभाव, वर्ण एवं जाति की विभाजन-रेखाओं, कृत्रिम विधि-विधानों और बाह्य आडम्बरों की निरर्थकता का खंडन किया। उनके उपदेशों ने निर्गुण और सगुण विचारधाराओं के बीच की दीवारों को कमज़ोर किया और मानवता, प्रेम तथा समानता की भावना को ऊँचा उठाया।

मीरा का जन्म एवं बाल्यकाल

मीरा का जन्म राजस्थान के कुड़की गाँव में राव रत्न सिंह राठौर के राजपूत परिवार में हुआ। बाल्यकाल में ही माता का देहांत हो गया जिससे उनका पालन-पोषण पिता और दादा ने किया। वह एकमात्र संतान थीं, इसलिए स्नेह का केंद्र बनीं परंतु माता के वात्सल्य से वंचित रहीं।

मीरा के पिता सगुण कृष्ण-उपासक थे। इसी कारण बाल्यावस्था में मीरा श्रीकृष्ण की मूर्ति को अपने साथ रखतीं और उसे अपने साथी, मित्र तथा स्वामी के रूप में पूजती थीं। वह उसी से बात करतीं, उसी को खिलातीं और उसी के साथ भजन गाया करतीं। उनकी पदावली में यह भाव स्पष्ट झलकता है, जिसमें उन्होंने अपने बालपन के कृष्ण-प्रेम को अभिव्यक्त किया है। —

पलना झूलूं श्याम मेरो, संग खेलूं गोपाल।
बालपन की मीत मोहे, तुहिं मोरे निहाल।।

विवाह एवं संघर्ष

जब मीरा बड़ी हुईं, तो उनका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। विवाह के बाद भी मीरा का मन सांसारिक सुखों में नहीं, बल्कि हरिनाम-स्मरण और भक्ति में रमता रहा। वह साधु-संतों के संग में जातीं, भजन-कीर्तन करतीं और अपने आराध्य के ध्यान में लीन रहतीं।

म्हारो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।

मीरा ने सांसारिक जीवन को त्याग कर ईश्वर भक्ति को सर्वोच्च माना और स्वयं को श्रीकृष्ण की दासी कहा।

मीरा के विचार और उनके पति भोजराज का स्वभाव एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे। भोजराज की मृत्यु के बाद ससुराल पक्ष के लोग भी मीरा की भक्ति-निष्ठा को देखकर व्यथित रहते थे। अंततः मीरा ने मेवाड़ छोड़ने का निश्चय किया।

इस बीच उनके पिता राव रत्न सिंह खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और दादा राऊ दूदा भी परलोक सिधार चुके थे। अब मीरा पूर्णतः अकेली थीं — परंतु यह अकेलापन उनके लिए भक्ति का मार्ग बन गया। उनका मन और अधिक वैराग्य से भर गया और वे सच्चे सद्गुरु की तलाश में जगह-जगह भटकने लगीं।

कुछ विद्वान मीरा को वल्लभ सम्प्रदाय से जोड़ने का प्रयास करते हैं, पर यह मत निराधार है। अपने पारिवारिक वातावरण के कारण संभव है कि उनका इस सम्प्रदाय से कुछ संपर्क रहा हो, परंतु उन्होंने इसकी विचारधारा को न तो स्वीकार किया और न ही वहाँ से दीक्षा ग्रहण की।

‘वार्ता’ के अनुसार वल्लभ सम्प्रदाय के प्रतिनिधि गोविंद दूबे मीरा के पास गए थे, पर वे मीरा से अप्रसन्न होकर लौट गए। उन्होंने मीरा की दी हुई भेंट को अस्वीकार करते हुए कहा —

“तू तो श्री आचार्य महाप्रभु की नहीं होत, ताते भेंट हाथ से छुवोंगी नहीं।”

एक अन्य उल्लेख के अनुसार मीरा वृंदावन भी आईं, किंतु वहाँ ठहरी नहीं। इन सभी तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायियों ने मीरा को अपने मत की दीक्षा देने का प्रयास किया, किंतु वे इसमें असफल रहे।

मीरा की आत्मा सदा से प्रभु के नाम में लीन रही। संसारिक मोह, कुल-मान और आडंबरों से परे रहकर उन्होंने भक्ति को ही जीवन का उद्देश्य बनाया।

उनकी गुरु-खोज अंततः सद्गुरु रविदास महाराज जी तक पहुँची, जिनसे उन्हें वह दिव्य ज्ञान और आत्मबल मिला जिसने उनके जीवन को अमर बना दिया।

सद्गुरु रविदास महाराज से दीक्षा

मीरा ने साधु-संतों के संग में सद्गुरु रविदास महाराज जी का नाम सुना और उनके वचनों की अमृतवाणी सुन भक्ति से प्रभावित हो वाराणसी पहुंचीं। वहाँ उन्होंने सद्गुरु के चरणों में प्रणाम किया और आत्मज्ञान की याचना की। सद्गुरु ने मीरा को नाम-दीक्षा दी और भक्ति का दीप प्रज्वलित किया।

स्वयं मीरा की पदावली में गुरु के रूप में सद्‌गुरु रविदास महाराज जी का स्मरण बार-बार आया है

गुरु मिलिया रैदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
चोट लगी निज नाम, हरि की मद्वारे हियड़े खटकी।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतिगुर सैन दई जब आके, जोत में जोत रली ।। (मीराबाई पदावली पृ० 31. पद 14)
जोगिया जी आवो ने या तेस
म्हारा सतिगुरू बेगा आज्या जी
अरज करै मीरा दासी जी,
गुरू पद-रज की मैं प्यासी जी।
तरूगुरू म्हाँरी प्रीत निमाज्यों जी।

अनेक स्थलों पर मीरा ने ईश्वर के निर्गुण निराकार एवं निरंजन रूप को मान्यता देते हुए आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया है:- एक ओर मीरा कहती है :-

“जाको नाम निरंजण कुहिए ताको ध्यान धरूँगी”

सद्गुरु रविदास महाराज जी के चरणों से जुड़कर मीरा उस प्रभु से अभेद हो जाती है। ज्ञान की प्राप्ति कर उसे सर्वत्र आत्मा के दर्शन हो जाते हैं तो इस प्रकार ज्ञान की चर्चा करती हुई मीरा कहती है :-

सतगुरु भेद बताइया,
खोली भरम की किंवारी हो।
सब घट दीसै आत्मा,
सबही सूँ न्यारी हो ।।
दीपक जोऊँ ग्यान का चढूँ
अगम अटारी हो।
मीरां दासी राम की इमरत बलिहारी हो।

दीक्षा के प्रमाण

गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतिगुर सैन दई जब आके, जोत में जोत रली।।
जनम जनम का टोटा भाग्या, गुरु मिल्या दातार।
मीरा ने गुरु गरवा मिलिया, जब पायो बिसवास।।

इन पदों से स्पष्ट है कि मीरा ने सद्गुरु रविदास को अपना परमगुरु माना और उनकी कृपा से जीवन का सत्य पहचाना।

परीक्षाएँ और चमत्कार

सद्गुरु रविदास महाराज जी से दीक्षा प्राप्त कर मीरा की भक्ति एवं प्रेम के इस विकास के साथ ही उसका जीवन कड़ी परीक्षाओं के घेरे में घिर गया। उस समय की परम्पराओं के विपरीत जब उसने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं और रुढ़िवादी बन्धनों को तोड़ कर साधु-सन्तों के साथ निरन्त उठना-बैठना शुरु कर दिया और सद्‌गुरु रविदास महाराज जी की संगति में निःसंकोच जाना शुरू कर दिया तो पण्डितों, पुरोहितों और चितौडगढ़ राज-दरबार के कट्टरपथी क्रोध की अग्नि में जलने लगे। मेवाड़ के राणा और उनका राज परिवार जो अपने राज वंश की महिलाओं का अन्य लोगों के साथ मिलना जुलना पसंद नहीं करता था और अपनी प्रतिष्ठा के गर्व में डूबा रहता था। वह इस बात को सहन न कर सका कि उनके घर की बहु ऐसे महात्मा को गुरु माने जो कि उस समाज की निम्न चमार जाति से संबंध रखता है।

उच्च वर्ग के कट्टरपंथियों ने मीरा की भक्ति और निष्ठा को अपनी समझ के अनुसार नापसंद किया। उन्होंने मीरा की कटु आलोचना की, निंदा के शब्दों से उसे घेरा, पर मीरा का हृदय अडिग रहा। हर व्यंग्य और अपमान का उत्तर वह केवल विनम्रता और सहनशीलता से देती रही।

केवल राणा सांगा ही मीरा की भावनाओं और भक्ति को समझ सकते थे, पर 1527 ईस्वी में उनका देहांत हो गया। उनके जाने के बाद, मेवाड़ के नए शासक राणा रत्न सिंह ने मीरा को राजघराने का कलंक मान लिया। भोजराज की बहन ऊदाबाई की मदद से उन्होंने उसे सुधारने के बहाने कई यातनाएँ दीं और डराने-धमकाने का प्रयास किया।

उनके प्रयासों के बावजूद मीरा का हृदय अडिग रहा। राणा रत्न सिंह ने तो तलवार उठाकर उसे मारने का भी प्रयास किया, पर प्रभु प्रेम में लीन मीरा का तेजस्वी प्रकाश उस तलवार की धार को असफल कर गया। राणा चकाचौंध होकर कमरे से बाहर भाग निकला।

इस सबके बीच मीरा का अपने गुरु रविदास जी के प्रति प्रेम और श्रद्धा और भी प्रगाढ़ हो गई। राणा ने दो स्त्रियों को उसे समझाने भेजा, पर वे भी मीरा की भक्ति और गुणों की प्रशंसक बन गईं।

मीरा अब पूर्णतया सद्गुरु प्रेम में डूब चुकी थी। हर क्षण, हर सांस में वह प्रभु के दर्शन की प्रतीक्षा करती, हृदय में केवल एक ही आकांक्षा लिए—सत्संग और परमपिता का अनंत मिलन। उसकी भक्ति की गहराई और दृढ़ता ने उसे सभी कठिनाइयों और षड्यंत्रों से भी अजेय बना दिया।

मीरा को उनके परिवार से विष दिया गया, साँप भिजवाए गए परंतु सद्गुरु रविदास महाराज जी की कृपा से हर बार वह सुरक्षित रहीं। विष अमृत बन गया और साँप फूलमाला में परिवर्तित हो गई ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सहज सखा सुहाई।
विष का प्याला अमृत कर दीन्हा, गुरु कृपा सिर छाई।।

लोकप्रियता और चितौड़गढ़

इस प्रकार सद्गुरु रविदास महाराज जी से राम-नाम धन पाकर मीरा स्वयं उस मालिक के साथ अभेद हो जाती है। लोग भी मीरा की प्रशंसा करने लगते हैं, उसके भजन-कीर्तन सुनने के लिए उसके पास आने लगे।

मीरा की भक्ति की ख्याति चारों ओर फैल गई। उन्होंने चितौड़गढ़ में ‘घनश्याम मंदिर’ निर्मित किया। वहाँ मूर्ति-प्रसंग में जो चमत्कार हुआ वह लोककथाओं में प्रसिद्ध है — मूर्ति गायब हो गई और जब मीरा ने सतगुरु रविदास महाराज जी से प्रार्थना की और मूर्ति पुनः प्रकट हुई।

दीवानी मीरा सद्‌गुरु के प्रेम में रंगी लोक-लाज, कुल की मर्यादाओं का एक नया आयाम प्रस्तुत करती है । अब निंदा-प्रशंसा, वैर-मित्रता, सभी उसे एक समान लगते है । अपने सद्‌गुरु के प्रेम में डूबी मीरा प्रत्येक क्षण उस मालिक के सिमरन में बिताने लगी। अब उसे दिन-रात, मित्र-शत्रु, अपने-पराए, दुख-सुख में कोई अन्तर नज़र नहीं आता था। लोक-लाज, कुल की मर्यादा आदि सभी सीमाओं को मीरा अब पार कर चुकी थी। प्रभु के नाम का पक्का रंग उस पर चढ़ चुका था, जो उतरने वाला नहीं था।

मध्यकालीन युग में फैली धार्मिक कट्टरता और अन्ध-विश्वासों की मैल को सद्गुरु रविदास महाराज जी और अन्य भक्त सन्त महापुरुषों ने धो डाला। आखिर महाराज जी की श्रेष्ठ और निर्गुण विचारधारा के आगे उस समय के उच्च सामन्त वर्ग को भी झुकना पड़ा। सद्गुरु रविदास महाराज जी की उच्च सोच का अंदाजा आप जी के शिष्यों से ही लगाया जा सकता है। और संत मीरा बाई जी की लोकप्रियता ने इसे साबित किया है

मीरा और गुरु रविदास जी का अद्भुत मिलन

मीरा के मन में विचार आया कि क्यों न सद्‌गुरु के नाम का एक सुंदर पूजा-स्थान बनाया जाए, जहाँ वह बैठकर प्रभु के गुणगान कर सके और अपने प्रेम का विस्तार कर सके। प्रभु कृपा से मीरा की यह इच्छा साकार हुई। उसने अपने प्रेम रूपी आँसुओं और प्रभु-नाम की ईंटों से सुंदर मंदिर बनवाया, जिसे चितौड़गढ़ में ‘घनश्याम मंदिर’ नाम दिया गया।

जब मंदिर निर्माण पूरा हुआ, तो उद्घाटन और मूर्ति स्थापना की तैयारी होने लगी। सभी रिश्तेदार और राजपुरोहित उत्सुक थे कि यह कार्य किसके करकमलों से संपन्न होगा। मीरा ने अडिग रहकर कहा कि इस भाग्यशाली मंदिर का उद्घाटन और मूर्ति स्थापना उनके प्रिय सद्‌गुरु श्री गुरु रविदास महाराज ही करेंगे।

मीरा की यह इच्छा जाति अहंकारी और स्वयं को विद्वान समझने वालों को नागवार गुजरी। उन्होंने विरोध किया और रात के अंधेरे में मूर्तियाँ हटाने की साजिश रची, ताकि उद्घाटन समारोह में सद्‌गुरु को अपमानित किया जा सके। उनका इरादा था कि मीरा का विश्वास डगमगा जाए और वे अपने अभिमान में विजय पाएँ।

अन्ततः वह शुभ घड़ी आ गई। पूरा मंदिर फूलों और दीपों से जगमग कर रहा था। लंगर पक रहा था, संगत प्रसन्न थी, और मीरा गुरु के दर्शन के लिए व्याकुल खड़ी थी। जैसे ही सद्‌गुरु रविदास महाराज मंदिर पहुँचे, हर ओर जय-जयकार गूँज उठा। मीरा ने प्रेमपूर्वक पर्दा हटाया और मूर्ति स्थापना की रस्म अदा करने को कहा।

लेकिन जब महाराज जी ने पर्दा हटाया, तो मूर्तियाँ वहाँ नहीं थीं। सभी स्तब्ध रह गए। जाति-अभिमानी लोग सोच रहे थे कि अब मीरा की श्रद्धा डगमगा जाएगी। परन्तु सद्‌गुरु रविदास महाराज अंतर्यामी थे। उन्होंने मीरा की सच्ची भक्ति और प्रेम को देखकर सब भ्रम दूर किया। अपने चमत्कारिक सामर्थ्य से उन्होंने मूर्तियों को पुनः स्थापित कर दिया।

इस प्रकार मीरा की अडिग श्रद्धा और सद्‌गुरु के चमत्कार से विरोधियों की साजिश नाकाम हो गई। मंदिर का उद्घाटन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ, और सभी ने प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम को अनुभव किया।

मीरा का वृंदावन यात्रा: भक्ति, साहस और स्वतंत्रता का प्रकाश

शाही पिंजरे से मुक्त उड़ान

मीरा ने शाही महल छोड़कर तीर्थ यात्रा पर जाने का निश्चय किया। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह उसी पिंजरे में बंद पक्षी की तरह है, जिसे सोने के पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। पिंजरे में भले ही अच्छे भोजन और सुख-सुविधाएँ मिलती हों, पर पंख काट दिए जाने के कारण वह उड़ नहीं सकता। पिंजरे में बंद पंछी हमेशा खुली हवा में उड़ने की चाह में रहते हैं। मीरा भी अब बंधनों से मुक्त होकर स्वतंत्र रहना चाहती थी।

चित्तौड़गढ़ का जीवन उसे गुलामी भरा लगता था। सद्‌गुरु के प्रेम ने उसे बल दिया और वह ऐसे स्थान की ओर बढ़ी, जहाँ एकांत और शांति हो।

वृंदावन का मार्ग

सबसे पहले मीरा वृंदावन पहुँची। यह भूमि ऋषि-मुनियों की थी और यहाँ महापुरुष कवि गोस्वामी जी निवास करते थे। आश्रम में पहुँचकर उसने द्वारपालों से दर्शन की इच्छा व्यक्त की। उत्तर मिला कि गोस्वामी जी आमतौर पर स्त्रियों को दर्शन नहीं देते, पर आपकी महिमा के कारण हम आपको कुटिया तक ले जा सकते हैं।

मीरा को पहले आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि शायद बिना दर्शन किए लौट जाना ही उचित होगा। फिर उसे याद आया कि उसके सद्‌गुरु रविदास महाराज जी भी कई कठिनाइयों और विरोधों से गुज़र चुके थे। उन्होंने अपनी बाणी से लोगों को ज्ञान दिया और उन्हें प्रभावित किया। इसी प्रेरणा से मीरा ने ठान लिया कि वह गोस्वामी जी को अपने तर्कों और भक्ति से समझाएगी।

सद्‌गुरु के आशीर्वाद से आत्मविश्वास

सद्‌गुरु के आशीर्वाद से मीरा का आत्मविश्वास प्रबल हो चुका था। वह रुढ़िवादिता और कर्मकांडों से ऊपर उठ चुकी थी। उसने गोस्वामी जी से कहा,

“तुम किस स्त्री की बात करते हो? क्या तुम स्वयं को पुरुष समझते हो? पुरुष तो केवल एक हैं—अकालपुरुष—और हम सभी उसकी नारियाँ हैं।”

मीरा के शब्दों ने गोस्वामी जी के अज्ञान का पर्दा हटा दिया। वे अपनी कुटिया से बाहर आए और मीरा के चरणों में गिर पड़े। उनकी आँखें आँसुओं से नम हो गईं और उन्होंने कहा,

“मीरा, तू धन्य है, और धन्य हैं तेरे सद्‌गुरु, जिन्होंने तुझे इतनी शक्ति, भक्ति और ज्ञान दिया है। तुझे पूर्ण संत की प्राप्ति हुई है।”

वृंदावन के बाद का जीवन

वृंदावन के बाद मीरा का जीवन अत्यंत शांत और भक्ति-प्रधान रहा। इतिहास में इसके प्रमाण बहुत कम हैं। उनके अंतिम जीवन के बारे में केवल अटकलें हैं; निश्चित रूप से कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आखिरी लेह मिलाय।
देह धराय तो मूरत भई, आत्मा ब्रह्म समाय।।

निष्कर्ष

मीरा बाई का जीवन सिर्फ भक्ति नहीं बल्कि सामाजिक जागरण का प्रतीक है। उन्होंने सद्गुरु रविदास महाराज जी की दीक्षा से भक्ति, साहस और आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त किया। उनका संदेश है कि सच्चे गुरु के चरणों में समर्पण ही मोक्ष का मार्ग है।

गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिले न राम।
मीरा के प्रभु रैदास जी, उद्धार किया संसार।।

स्रोत — “रविदास ठाकुर बणि आई” लेखक सोमा अत्री राधा-- मूल दस्तावेज और ऐतिहासिक संदर्भों एवं लोक परंपराओं पर आधारित

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