सतगुरु कबीर और स्वामी रामानंद जी
स्वामी रामानंद – उच्च कुल में जन्म, ऊँचे विचार
स्वामी रामानंद जी ब्राह्मण कुल में जन्मे, वेद शास्त्रों के महान ज्ञाता और वैष्णव मत के प्रमुख आचार्य थे। सामाजिक दृष्टि से वे उच्च जाति में माने जाते थे, और मनुवादी व्यवस्था के अनुसार उनसे निम्न जाति के किसी व्यक्ति को दीक्षा प्राप्त करने की कल्पना भी असंभव मानी जाती थी।
लेकिन सच्चा गुरु कभी शरीर, जाति, कुल या वर्ण से नहीं होता – गुरु तो आत्मा को पहचानता है, और उसी अवस्था में सत्य की धारा बहती है।
कबीर – समाज द्वारा 'अछूत' कहा गया, पर आत्मज्ञान से समृद्ध
संत कबीर जन्म से ही समाज द्वारा 'निम्न जाति' कहे गए। परंतु आत्मज्ञान, सत्य और भक्ति के मार्ग पर वे मन, वचन और कर्म से अत्यंत दृढ़ थे। वे जानते थे कि उन्हें सच्चे ज्ञान की आवश्यकता है, और उस मार्ग पर उन्हें योग्य गुरु की ही छाया मिल सकती है।
उन्होंने स्वामी रामानंद को अपनी साधना का आधार चुना – लेकिन समाज में फैले जातिगत भेद को देखते हुए यह मार्ग सहज नहीं था।
गंगा घाट की घटना – गुरुत्व का दिव्य आरंभ
कई विद्वानों के अनुसार जब कबीर जी पहली बार स्वामी रामानंद जी के पास दीक्षा लेने पहुँचे तो उन्हें जातिगत कारणों से मना कर दिया गया। पर कबीर जी का संकल्प अटल था।
उन्हें ज्ञान था कि स्वामी रामानंद प्रतिदिन प्रातःकाल गंगा स्नान को जाते हैं। कबीर जी गंगा घाट की सीढ़ियों पर ही लेट गए।
सुबह जब स्वामी रामानंद जी स्नान के लिए घाट की सीढ़ियाँ उतर रहे थे, उनका पाँव कबीर जी के शरीर से स्पर्श हुआ। स्वामी चौंके, और अनायास उनके मुख से दिव्य वचन निकले:
यही शब्द कबीर जी के लिए दीक्षा का मंत्र बन गया। गुरु के मुख से निकला हुआ वचन ही गुरु-मंत्र होता है, चाहे वह क्षणिक बोल में निकला हो या विधिपूर्वक।
कबीर – अपने गुरु का स्मरण और गौरव
कबीर साहेब ने अपने जीवन भर कहा:
लोगों ने जब पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन है, तो वे सदा कहते:
समाज का विरोध और सत्य की विजय
जब समाज को यह पता चला कि एक ब्राह्मण आचार्य ने जुलाहे को दीक्षा दे दी है, तो लोगों ने स्वामी को कठघरे में खड़ा कर दिया:
- "आपने सामाजिक मर्यादा क्यों तोड़ी?"
- "एक अछूत को शिष्य बनाने का अपराध कैसे किया?"
स्वामी रामानंद ने उत्तर दिया:
तब संत कबीर मुस्कुराए और विनम्रता से कहा:
"महाराज, गंगा घाट की उस सुबह को स्मरण कीजिए। आपने कहा था – 'राम कहो।' मैं आज भी उसी वचन का पालन कर रहा हूँ।"
सन्नाटा छा गया। गंगा घाट की घटना को स्वयं रामानंद जी भी झुठला नहीं सके। सत्य सामने था – गुरु-शिष्य संबंध जाति से नहीं, संयोग और अध्यात्म से बनते हैं।
स्वामी रामानंद – अंततः सत्य के आगे नतमस्तक
स्वामी रामानंद जी समझ गए कि कबीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि साधना और सत्य का जीवंत स्वरूप हैं। यह उसी क्षण प्रकट हुआ कि सच्चा शिष्य वह नहीं जो विधिपूर्वक दीक्षा ले – सच्चा शिष्य वह है जो गुरु के वचन को जीवन बना ले।
कबीर – भक्ति का मार्ग, जाति के बंधनों से परे
संत कबीर ने जीवन भर कहा:
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।"
कबीर और रामानंद का यह प्रसंग केवल ऐतिहासिक या धार्मिक कथा नहीं – यह संदेश है कि:
- भक्ति जाति नहीं देखती, भाव देखती है
- गुरु शरीर का नहीं, आत्मा का होता है
- सत्य के मार्ग पर जाने के लिए साहस और दृढ़ विश्वास चाहिए
- समाज की संकीर्ण दीवारें अध्यात्म के सामने टिक नहीं सकतीं
आज के समय में इस प्रसंग का महत्व
आज भी समाज में वर्ग, जाति, धर्म, पंथ के आधार पर विभाजन दिखाई देते हैं। पर कबीर और स्वामी रामानंद का संबंध हमें सिखाता है:
- ज्ञान किसी का बंधक नहीं
- गुरु-शिष्य का संबंध ब्रह्ममय होता है
- जो सत्य पर अडिग रहता है, समय उसे सिद्ध कर देता है
उपसंहार
कबीर और रामानंद का यह दिव्य प्रसंग भारतीय अध्यात्म की महान धरोहर है। यह सिद्ध करता है कि:
कबीर जी का जीवन आज भी प्रेरणा देकर कहता है:
गुरु बस कहे एक बात,
शिष्य जीवन भर निभा जाए –
वही सच्ची दीक्षा है।"
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